ध्रुपद सबसे पुरानी और सबसे प्रभावशाली धाराओं में से एक है जिसने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में अपना योगदान दिया है। स्व. उस्ताद फैयाज़ुद्दीन डागर (1934–1989) के अनुसार, ‘ध्रुपद के दो भागों में– आलाप [राग का तात्कालिक भाग, जो कि औपचारिक अभिव्यक्ति का प्रारंभ होता है] को मुक्त ताल की तरह गाया जाता है, और पद [शब्द या वाक्याँश जो कि राग की संकल्पना को दर्शाता है] एक तालबद्ध कविता की तरह है, जिसको तबला एवं दो-सिरे पखावज [ध्रुपद में प्रयोग किया जाने वाला एक प्रचलित तालवाद्य] के संग गाया जाता है। ध्रुपद एक प्रकार का धार्मिक और आध्यात्मिक संगीत है और जबकि इसका बुनियादी अंदाज़, जो कि 15 सदी में इसकी शुरुआत से ही नहीं बदला है, इसमें वैयक्तिकता की अपनी ही पहचान है।’
डागर और ध्रुपद: दिव्य विरासत संगीत के इस प्रेतबाधित रूप की समृद्ध विरासत की झलक देती है जिसने दुनिया भर में दर्शकों को मंमुग्ध किया है। यह ध्रुपद गायक की 20 पीढ़ियों के माध्यम से शानदार डागर परिवार के इतिहास का पता लगाता है और संगीत के इस अद्वितीय रूप के लिए उनके विशिष्ट दृष्टिकोण को दर्शाता है। दुर्लभ तस्वीरें किताब को अौर अधिक विशेष बनाती हैं।
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