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अवध के ज़ायके: शाही दावत से घर की रसोई तक का सफ़र, राजमहलों से लेकर गलियारों में भोजन पकाने की कहानी है।
इस किताब में कई दशकों में तय हुआ एक अनोखा सामाजिक-सांस्कृतिक सफर का हुलिया है, जिसमें एक बहुत ही अलहदा क्षेत्रीय भोजन के इतिहास को चित्रांकित किया गया है जो खानदानों के किस्सों, स्थानीय त्योहारों, क्षेत्रीय संस्कृति और खाने की परम्पराओं के रंगों से भरा हुआ है।इसमें उन विशिष्ट घरानों की साठ से भी ज़्यादा पाकविधियाँ हैं, जहाँ इस अनोखी और पारम्परिक पाकशैली को सदियों से सँजो कर रखा गया है।
उत्तर भारत के हरे-भरे गंगा के मैदान में स्थित अवध क्षेत्र के भोजन का दरबार बहुत ही विशाल और विविध है और यहाँ की राजधानी लखनऊ के अपने बहुत ही ख़ास अदब है। बहुत ही उच्च कोटि का परिष्करण, तहज़ीब की एक गैरमामूली परंपरा और बहुत ही स्पष्ट सामाजिक कायदे और रिवाज इस कामयाब क्षेत्रीय पाकशैली की खासियत है। मध्य 14वीं और आरंभिक 18वीं शताब्दियों में जौनपुर के शर्क़ी सल्तनत और बाद में शुरुआती मुगलों ने इसकी तरबियत को समृद्ध किया। खुशबूदार मसाले, नायाब जड़ी-बूटियाँ, एक दुर्लभ सृजनात्मकता और एक रोमांटिक विचारधारा के साथ जब जातीय विलक्षणता और परंपराएँ जुड़ गईं तो भोजन और मेज़बानी की एक बहुत ही ख़ास किस्म की तख़्लीक़ हुई– पाकशैली की अवधी परम्परा।
जैसा कि कहावत है लखनऊ के पानी तक का स्वाद अलहदा है। पारम्परिक रूप से यह गर्मी के मौसम में मिट्टी के बर्तनों में रखा जाता था और अकसर इसमें पुदीने की पत्तियाँ मिला कर पीते थे और मौसम के साथ इसका रंग और स्वाद बदल जाता है। लम्बे नक्काशी किये हुए बर्तन में गुलाब की पंखुड़ियों को छिड़क कर इसे पेश किया जाता था। पानी देने के इस ख़ास तरीके से इस इलाके में खाने की आदतों में निहित सृजनात्मक जुनून की एक मिसाल देखने को मिलती है।
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